अहमद रियाज़ के शेर
कुछ इस तरह से लुटी है मता-ए-दीदा-ओ-दिल
कि अब किसी से भी ज़िक्र-ए-वफ़ा नहीं करते
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ग़म-ए-हबीब ग़म-ए-ज़िंदगी ग़म-ए-दौराँ
किसी मक़ाम पे हम जी बुरा नहीं करते
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फ़र्त-ए-ग़म-ए-हवादिस-ए-दौराँ के बावजूद
जब भी तिरे दयार से गुज़रे मचल गए
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मैं नुक्ता-चीं नहीं हूँ मगर ये बताइए
वो कौन थे जो हँस के गुलों को मसल गए
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शिकस्त-ए-अहद-ए-सितम पर यक़ीन रखते हैं
हम इंतिहा-ए-सितम का गिला नहीं करते
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