अजय सहाब
ग़ज़ल 28
नज़्म 4
अशआर 16
काश लौटें मिरे पापा भी खिलौने ले कर
काश फिर से मिरे हाथों में ख़ज़ाना आए
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हादसे जान तो लेते हैं मगर सच ये है
हादसे ही हमें जीना भी सिखा देते हैं
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हर ख़ुदा जन्नतों में है महदूद
कोई संसार तक नहीं पहुँचा
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जम्हूरियत की लाश पे ताक़त है ख़ंदा-ज़न
इस बरहना निज़ाम में हर आदमी की ख़ैर
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शायद ज़बाँ पे क़र्ज़ था हम ने चुका दिया
ख़ामोश हो गए हैं तुझे हम पुकार के
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