अकबर हैदरी कश्मीरी
अशआर 10
सब्र करती ही रही बे-चारगी
ज़ुल्म होता ही रहा मज़लूम पर
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ऐ अजल कुछ ज़िंदगी का हक़ भी है
ज़िंदगी तेरी अमानत ही सही
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हर नफ़स मिन्नत-कश-ए-आलाम है
ज़िंदगी शायद इसी का नाम है
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जब्र सहता हूँ मगर कब तक सहूँ इंसान हूँ
सब्र करता हूँ मगर दिल सब्र के क़ाबिल नहीं
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दीदनी है अब शिकस्त-ए-ज़ब्त की बे-चारगी
मुस्कुराता हूँ मगर दिल दर्द से लबरेज़ है
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