अकबर हैदरी कश्मीरी के शेर
सब्र करती ही रही बे-चारगी
ज़ुल्म होता ही रहा मज़लूम पर
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ऐ अजल कुछ ज़िंदगी का हक़ भी है
ज़िंदगी तेरी अमानत ही सही
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हर नफ़स मिन्नत-कश-ए-आलाम है
ज़िंदगी शायद इसी का नाम है
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टैग : ज़िंदगी
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जब्र सहता हूँ मगर कब तक सहूँ इंसान हूँ
सब्र करता हूँ मगर दिल सब्र के क़ाबिल नहीं
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दीदनी है अब शिकस्त-ए-ज़ब्त की बे-चारगी
मुस्कुराता हूँ मगर दिल दर्द से लबरेज़ है
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आह अब ख़ुद्दारी-ए-अकबर कहाँ
हो गई वो भी ग़ुलाम-ए-आरज़ू
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हुस्न की तफ़्सीर भी कुछ कीजिए
इश्क़ बे-शक इक ख़याल-ए-ख़ाम है
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ज़िंदगी है चश्म-ए-इबरत में अभी
कुछ नहीं तो ऐश-ओ-इशरत ही सही
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इश्क़ की सादा-दिली है हर तरफ़ छाई हुई
बारगाह-ए-हुस्न में हर आरज़ू नौ-ख़ेज़ है
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बज़्म-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ में 'अकबर' की अफ़्सुर्दा-दिली
दाद के लाएक़ नहीं बे-दाद के क़ाबिल नहीं
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