अख़लाक़ बन्दवी
ग़ज़ल 21
अशआर 4
क्या तुझे इल्म नहीं तेरी रज़ा की ख़ातिर
मैं ने किस किस को ज़माने में ख़फ़ा रक्खा है
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किसी के लम्स की तासीर है कि बरसों बा'द
मिरी किताबों में अब भी गुलाब जागते हैं
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उम्र लग जाती है इक घर को बनाने में हमें
मकड़ियाँ रोज़ ही बुन लेती हैं जाले कैसे
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ज़माने से मोहब्बत का अभी तक
ये हासिल है कि कुछ हासिल नहीं है
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