अख़्तर शाहजहाँपुरी
ग़ज़ल 17
अशआर 20
अभी तहज़ीब का नौहा न लिखना
अभी कुछ लोग उर्दू बोलते हैं
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ये मो'जिज़ा हमारे ही तर्ज़-ए-बयाँ का था
उस ने वो सुन लिया था जो हम ने कहा न था
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अपनों से जंग है तो भले हार जाऊँ मैं
लेकिन मैं अपने साथ सिपाही न लाऊँगा
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कोई मंज़र नहीं बरसात के मौसम में भी
उस की ज़ुल्फ़ों से फिसलती हुई धूपों जैसा
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वो जुगनू हो सितारा हो कि आँसू
अँधेरे में सभी महताब से हैं
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