अलीम मसरूर
ग़ज़ल 6
अशआर 7
अफ़्साना मोहब्बत का पूरा हो तो कैसे हो
कुछ है दिल-ए-क़ातिल तक कुछ है दिल-ए-बिस्मिल तक
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ज़माने को दूँ क्या कि दामन में मेरे
फ़क़त चंद आँसू हैं वो भी किसी के
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जाने क्या महफ़िल-ए-परवाना में देखा उस ने
फिर ज़बाँ खुल न सकी शम्अ जो ख़ामोश हुई
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निकले तिरी महफ़िल से तो साथ न था कोई
शायद मिरी रुस्वाई कुछ दूर चली होगी
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भीड़ के ख़ौफ़ से फिर घर की तरफ़ लौट आया
घर से जब शहर में तन्हाई के डर से निकला
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