अल्ताफ़ फ़ातिमा की कहानियाँ
नंगी मुर्गियां
यह कहानी आधुनिकता के बहाव में हो रहे औरतों के शोषण की बात करती है। ख़ुद-मुख़्तारी, आज़ादी और आत्म-निर्भर होने के चक्कर में औरतें समाज और परिवार में अपनी हक़ीक़त तक को भूल गई हैं। पश्चिम के प्रभाव में वे ऐसे कपड़े पहन रही हैं कि कपड़े पहनने के बाद भी वो नंगी नज़र आती हैं, जिन्हें कोई कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं कर सकता।
दर्द-ए-ला-दवा
यह कहानी हाथ से कालीन बुन्ने वाले दस्तकारों के हुनर और उनके आर्थिक और शारीरिक उत्पीड़न को बयान करती है। कालीन बुनने वाले लोग करघे में कितने रंगों और किस सफ़ाई के साथ काम करते हैं। उनके इस काम में उनकी उंगलियाँ सबसे ज़्यादा मददगार होती हैं। मगर एक वक़्त के बाद ये उंगलियाँ ख़राब भी हो जाती हैं। उस करघे में काम करने वाले सबसे हुनरमंद लड़की के साथ भी यही हुआ था। फिर रही-सही क़सर करघों की जगह ईजाद हुई मशीनों ने पूरी कर दी।
कहीं ये पुरवाई तो नहीं
तक़सीम से पैदा हुए हालात के दर्द को बयान करती कहानी है। अचानक लिखते हुए जब खिड़की से पुर्वाई का एक झोंका आया तो उसे बीते हुए दिनों की याद ने अपनी आग़ोश में ले लिया। बचपन में स्कूल के दिन, झूलते, खाते और पढ़ाई करते दिन। वे दिन जब वे घर के मुलाज़िम के बेटे रब्बी दत्त के पास पढ़ने जाया करते थे। रब्बी दत्त, जो उन्हें अपनी बहन मानता था और उनसे राखी बंधवाया करता था। मगर अब न तो राखी बंधवाने वाला कोई था और न ही उसकी दक्षिणा देने वाला।
नियॉन साइंज़
यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जो अपने साथी के साथ एक सर्द, अंधेरी रात में सड़क पर चली जा रही है। वह एक जानी-पहचानी सड़क है, मगर उससे गुज़रते हुए उन्हें डर लग रहा है। उस सड़क पर एक विशाल बरगद का पेड़ भी है, जिसके मुताल्लिक़ उस लड़की का साथी उसे एक दास्तान सुनाता है जब उसने उसके पास उस नियॉन साइंज़ को देखा था, जिसमें ढेरों गोल-गोल दायरे थे। दर हक़ीक़त वे दायरे कुछ और नहीं बल्कि ज़िंदगी की शक़्ल पर उभरे हुए धब्बे थे।
सोन गुड़ियाँ
तब वो दिन-भर की थकी हारी दबे पाँव उस कोठरी की तरफ़ बढ़ती, जहाँ दिन-भर और रात गए तक काम ख़िदमत में मसरूफ़ रहने के बाद आराम करती, और फिर एक बार इधर-उधर नज़र डालने के बाद कि आस-पास कोई जागता या देखता तो नहीं, वो कोठरी के किवाड़ बंद कर लेती। ताक़ पर से डिब्बे
शीर-दहान
यह एक ऐसी किताबों की दुकान की कहानी है, जो अपने ज़माने में बहुत मशहूर थी। इलाक़े के हर उम्र के लोग उस दुकान में आया करते थे और अपनी पसंद की किताबें ले जाकर पढ़ा करते थे। धीरे-धीरे वक़्त बीता और लोगों की ज़िंदगियों में मनोरंजन के दूसरे साधन शामिल होते गए। लोगों ने उस दुकान की तरफ़ जाना छोड़ दिया। दुकान का मालिक ख़ामोश बैठा रहता है, उसका ख़याल है कि यह वक़्त शेर का मुँह है जो सारी चीज़ों को निगलता जा रहा है।
छोटा
यह कहानी बाल-मज़दूर के रूप में होटलों और ढ़ाबों में काम करनेवाले बच्चों के शोषण को बयान करती है। बाज़ार से लगा हुआ वह इलाक़ा एकदम सुनसान था। फिर वहाँ आकर कुछ लोग रहने लगे, जिनमें कई छोटे बच्चे भी थे। देखते ही देखते ही वह इलाक़ा काफ़ी फल-फूल गया और वहाँ बस्ती के साथ कई तरह के होटल भी उभर आए। उन्हीं होटलों में से एक में 'छोटा' भी काम करता था, जो काम के साथ-साथ मालिक की गालियाँ, झिड़कियाँ और मार भी सहता था।
कमंद-ए-हवा
यह कहानी विभाजन की वीभिषिका में इंसानों और परिवारों के टूटने, बिखरने और फिर विस्थापित हो जाने के दर्द की दास्तान बयान करती है। वो घर, उनमें बसे लोग और उनसे जुड़ी यादें, जो महज़़ एक हवा के झोंके से बिखर कर रह गई। फिर ऐसा भी नहीं है कि उसके बाद वह हवा रुक गई हो। वह अभी भी लगातार चल रही है और उसके बहाव में लोग अपनी जड़ों से कट कर यहाँ-वहाँ बिखरे फिर रहे हैं।
सांख्या योगी
यह कहानी हिंदू धार्मिक ग्रंथ गीता के उपदेश के गिर्द घूमती है, जिसमें कर्म योग और सांख्य योग पर विचार किया गया है। कर्म योगी हमेशा सांख्य योग पर भारी पड़ता है, कि वह संन्यासी होता है, मगर वह कर्म योगी नहीं बन सका था, उसे जो काम सौंपा गया था उसे करने में वह नाकाम रहा था। फ़ाइटर जेट में सवार होकर जब वह लाहौर पर बम गिराने गया था तो उसने महज़ इसलिए इस काम पर अमल करने से इंकार कर दिया था क्योंकि उस शहर की किसी बस्ती में उसकी माशूक़ा रहती थी।