अमित गोस्वामी
ग़ज़ल 45
नज़्म 11
अशआर 13
तुझ से जब गुफ़्तुगू नहीं होती
ख़ुद से तेरी ही बात करता हूँ
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मैं ने चाहा है जिसे यूँ तो मुकम्मल है मगर
इक कमी है कि उसे उर्दू नहीं आती है
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सुब्ह की चाय से फिर आईं याद
तेरे पहलू में चाय की शामें
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तुम को हाथों की लकीरों में नहीं लिख पाया
इस लिए ग़ज़लों में लिख कर ही तलाफ़ी कर ली
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अब वो नहीं है फिर भी दफ़्तर से सीधा घर आता हूँ
डर लगता है देर हुई तो माँ मुझ को फिर डाँटेगी
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