अम्मार इक़बाल
ग़ज़ल 13
नज़्म 2
अशआर 12
मैं ने चाहा था ज़ख़्म भर जाएँ
ज़ख़्म ही ज़ख़्म भर गए मुझ में
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एक ही बात मुझ में अच्छी है
और मैं बस वही नहीं करता
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एक दरवेश को तिरी ख़ातिर
सारी बस्ती से इश्क़ हो गया है
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मैं ने तस्वीर फेंक दी है मगर
कील दीवार में गड़ी हुई है
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ये जो मैं हूँ ज़रा सा बाक़ी हूँ
वो जो तुम थे वो मर गए मुझ में
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