अंजाम के शेर
न सुन तू पंद वाइज़ का जो अपने धुन में पक्का है
ख़ुदा-हाफ़िज़ तिरा दोज़ख़ भी इक शरई धड़का है
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अब यही एहसाँ है जो हरगिज़ न हों आज़ाद हम
फिर चमन में जाएँ क्या मुँह ले के ऐ सय्याद हम
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