अंजुम अज़ीमाबादी के शेर
बाहर झूम रहा था मौसम फूलों का
अंदर रूठी थी हरियाली करते क्या
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तुम हवस-परस्तों के सैंकड़ों ख़ुदा ठहरे
एक है ख़ुदा अपना दूसरा नहीं रखते
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सर सलामत है तो रौज़न भी बना लूँगा मैं
हब्स तेरे दर-ओ-दीवार से वाक़िफ़ मैं हूँ
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