अंजुम आज़मी
ग़ज़ल 14
नज़्म 28
अशआर 13
तुझ से पर्दा नहीं मिरे ग़म का
तू मिरी ज़िंदगी का महरम है
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दिल न का'बा है ने कलीसा है
तेरा घर है हरीम-ए-मरियम है
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अब न वो जोश-ए-वफ़ा है न वो अंदाज़-ए-तलब
अब भी लेकिन तिरे कूचे से गुज़र होता है
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बिठा के सामने तुम को बहार में पी है
तुम्हारे रिंद ने तौबा भी रू-ब-रू कर ली
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कोई तो ख़ैर का पहलू भी निकले
अकेला किस तरह ये शर रहेगा
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