अंजुम मानपुरी के शेर
वतन के लोग सताते थे जब वतन में थे
वतन की याद सताती है जब वतन में नहीं
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आज 'अंजुम' मुस्कुरा कर उस ने फिर देखा मुझे
शिकवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा फिर भूल जाना ही पड़ा
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न पूछ उस की दिल-अफ़्सुर्दगी की कैफ़िय्यत
जो ग़म-नसीब ख़ुशी में भी मुस्कुरा न सका
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ये दो-दिली में रहा घर न घाट का 'अंजुम'
बुतों को कर न सका ख़ुश ख़ुदा को पा न सका
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काम 'अंजुम' का जो तमाम किया ये आप ने वाक़ई ख़ूब किया
कम-बख़्त इसी के लाएक़ था अब आप अबस पछताते हैं
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