अनवर महमूद खालिद के शेर
जो हो सका न मिरा उस को भूल जाऊँ मैं
पराई आग में क्यूँ उँगलियाँ जलाऊँ मैं
हुए असीर तो फिर उम्र भर रिहा न हुए
हमारे गिर्द तअल्लुक़ का जाल ऐसा था
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इक धमाके से न फट जाए कहीं मेरा वजूद
अपना लावा आप बाहर फेंकता रहता हूँ मैं
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इतना सन्नाटा है कुछ बोलते डर लगता है
साँस लेना भी दिल ओ जाँ पे गिराँ है अब के
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