अक़ील अब्बास
ग़ज़ल 12
अशआर 32
ख़ुदा को ख़त लिखूँगा ख़ुद-कुशी का
लिखूँगा मैं रीज़ाइन कर रहा हूँ
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एक बोसा उधार है तुम पर
और चाय भी तेज़ पत्ती की
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सफ़र निगल गए हम को वगरना हम ने भी
कहीं पहुँच के किसी को गले लगाना था
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जाने इस वक़्त कहाँ फ़ोन पड़ा हो उस का
जाने इस वक़्त वो किस शख़्स की आग़ोश में हो
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सिपह-गरी का हुनर भी सुख़न-वरी भी हो
मैं चाहता हूँ कि लश्कर भी हो परी भी हो
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