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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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अरशद लतीफ़

1961

अरशद लतीफ़

ग़ज़ल 9

अशआर 7

अजब कशिश है तिरे होने या होने में

गुमाँ ने मुझ को हक़ीक़त से बाँध रक्खा है

कोई तो मोजज़ा ऐसा भी हो अपनी मोहब्बत में

तिरे इंकार से इक़रार की सूरत निकल आए

ख़ला का मसअला ही मुख़्तलिफ़ है

समुंदर इस क़दर गहरा नहीं है

सभी ताबीर उस की लिख रहे हैं

किसी ने भी उसे देखा नहीं है

फैलती जा रही है ये दुनिया

जश्न-ए-आवारगी मनाने में

पुस्तकें 1

 

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