अरशद लतीफ़
ग़ज़ल 9
अशआर 7
अजब कशिश है तिरे होने या न होने में
गुमाँ ने मुझ को हक़ीक़त से बाँध रक्खा है
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कोई तो मोजज़ा ऐसा भी हो अपनी मोहब्बत में
तिरे इंकार से इक़रार की सूरत निकल आए
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ख़ला का मसअला ही मुख़्तलिफ़ है
समुंदर इस क़दर गहरा नहीं है
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सभी ताबीर उस की लिख रहे हैं
किसी ने भी उसे देखा नहीं है
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फैलती जा रही है ये दुनिया
जश्न-ए-आवारगी मनाने में
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