असग़र गोंडवी का परिचय
उपनाम : 'असग़र'
मूल नाम : असग़र हुसैन गोंडवी
जन्म : 01 Mar 1884 | गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
निधन : 30 Nov 1936 | इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
संबंधी : मोहम्मद अहसन वाहिदी (शिष्य)
चला जाता हूँ हँसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
अगर आसानियाँ हों ज़िंदगी दुश्वार हो जाए
असग़र गोंडवी उर्दू के उन गिने-चुने शायरों में से एक हैं जिन्होंने हुस्न-ओ-इश्क़ की शायरी को मात्र विरह का सोग, जिस्म की कोमलता और लज़्ज़तों के बयान या उस सोज़-ओ-गुदाज़ से जो इश्क़िया शायरी का अनिवार्य समझा जाता है, दूर रखकर एक हर्षोल्लास का अंदाज़ दिया जो बिल्कुल नया था और जो पढ़ने वाले को उदास या ग़मगीं करने की बजाय एक मसर्रत अफ़्ज़ा कैफ़ियत से दो-चार करता है और वो भी इस तरह कि इसमें लखनवी शायरी का ओछेपन या तहज़ीब से गिरी हुई किसी बात की मिलावट तक नहीं। असग़र की शायरी मूलतः तसव्वुफ़ की शायरी होने के बावजूद दूसरे सूफ़ी शायरों जैसे दर्द, सिराज औरंगाबादी या अमीर मीनाई की शायरी से बहुत अलग है और वो इस तरह कि उनकी शायरी उस शख़्स को भी जिसे तसव्वुफ़ या सूफ़ियाना मज़ामीन से कोई दिलचस्पी न हो, सरशार और ख़ुश करती है। उनका बयान करने का ढंग दिलकश, रंगीन और मसर्रत अफ़्ज़ा है और उनकी यही विशेषता उनको दूसरे सूफ़ी शायरों से अलग करती है। असग़र ने बहुत से दूसरे शायरों की तरह नाल कटते ही “मतला अर्ज़ है” नहीं कहा बल्कि परिपक्व अवस्था में शायरी शुरू की और उसको दूसरों तक पहुंचाने या मक़बूल बनाने की कोई कोशिश नहीं की। उनका चलता फिरता इश्तिहार बस जिगर मुरादाबादी थे जो उनसे इस क़दर प्रभावित थे कि उनकी ग़ज़लें जेब में लिए फिरते थे और एक एक को सुनाते थे। असग़र कभी पेशेवर या अधिक कहने वाले शायर नहीं रहे और तभी शे’र कहते थे जब शे’र ख़ुद को उनसे कहलवा ले। यही वजह है कि उनका जो भी कलाम है वो सारे का सारा दर्जा-ए-अव़्वल का, नम और शुष्क से पाक और नफ़ासत से लबरेज़ है।
असग़र का असल नाम असग़र हुसैन था, वो 1884 में गोरखपुर में पैदा हुए उनके वालिद तफ़ज़्ज़ुल हसन मुलाज़मत के सिलसिले में गोंडा रहते थे, जहां वो सदर क़ानूनगो थे और अरबी, फ़ारसी की अच्छी समझ रखते थे। चूँकि गोंडा में असग़र ने स्थाई रिहायश इख़्तियार कर ली थी इसीलिए असग़र गोंडवी कहलाते हैं। असग़र की आरम्भिक शिक्षा नियमानुसार मकतब से शुरू हुई और उर्दू व अरबी में उन्होंने ख़ासी महारत हासिल कर ली। इसके बाद अंग्रेज़ी शिक्षा के लिए गर्वनमेंट स्कूल गोंडा में दाख़िला लिया और वहीं से 1904 में मिडल(आठवीं जमात) का इम्तिहान पास किया। इस दौरान उन्होंने अरबी और फ़ारसी की किताबें अपने वालिद से घर पर पढ़ीं। 1906 में वालिद के कहने से अंग्रेज़ी तालीम का सिलसिला ख़त्म कर दिया ताकि नौकरी प्राप्त कर सकें। उस ज़माने में इतनी अंग्रेज़ी शिक्षा नौकरी के लिए काफ़ी समझी जाती थी। इसी अर्सा में असग़र की मुलाक़ात रेलवे हेडक्वार्टर के दफ़्तर में एक हेडक्लर्क बाबू राज बहादुर कायस्थ से हुई। ये साहिब ख़ासे तेज़ तर्रार, रंगीन मिज़ाज और अंग्रेज़ी के ज्ञान की बदौलत अंग्रेज़ हुक्काम तक रसूख़ रखते थे। वो असग़र की ज़हानत, हाज़िर जवाबी और हास्य प्रिय स्वभाव से प्रभावित हुए और अधिकारियों से कह कर उन्हें बीस रुपये माहवार पर रेलवे में टाइम कीपर रखवा दिया। असग़र ने अपनी निजी कोशिशों से उर्दू-फ़ारसी में काफ़ी महारत हासिल कर ली थी और एक एंग्लो इंडियन की मदद से अंग्रेज़ी साहित्य से भी परिचित हो गए थे। यह शिक्षा व संगत आगे चल कर “हिन्दुस्तानी एकेडमी” के त्रय मासिक “हिन्दुस्तानी” के उर्दू विभाग के संपादक की हैसियत से उनकी नियुक्ति में काम आई। असग़र टाइम कीपरी की नौकरी के लिए बाबू राज बहादुर के बहुत कृतज्ञ थे और उन्हें अपना शुभचिंतक और मेहरबान समझ कर उनसे घुल मिल गए थे और इसका नतीजा ये निकला कि उन्हें शराब, अफ़ीम और कोठों की सैर का चसका लग गया। ये सिलसिला पाँच साल तक चला फिर अचानक उनकी काया पलटी और तमाम बुरी आदतों, राज बहादुर की संगत और टाइम कीपर की नौकरी को लात मार कर घर में बैठ रहे। कोठों की चर्चित हाज़रियों के दौरान छुट्टन नामी एक तवाएफ़ असग़र पर लट्टू हो गई। ये एक साधारण शक्ल-ओ-सूरत की नेक दिल, सादा मिज़ाज और शांतस्वभाव की औरत थी जिसकी तरफ़ असग़र भी आकर्षित हुए बग़ैर नहीं रह सके थे। वो अपने शराबनोशी के ज़माने में अगर नशे में चूर छुट्टन के घर पहुंचते और इमाम ग़ज़ाली के फ़लसफ़े पर उसके साथ बहस करते थे। तौबा करने के बाद उन्होंने उससे मिलना-जुलना छोड़ दिया था और उसके साथ उनकी दिलचस्पी भी लम्हाती थी लेकिन वो असग़र के लिए संजीदा थी और आसानी से असग़र का पीछा छोड़ने वाली नहीं थी। जब असग़र विमुख हो गए और उसके घर आना-जाना बंद कर दिया तो वो उस मस्जिद के बाहर जहां असग़र नमाज़ पढ़ते थे, आकर बैठ जाती थी, ताकि उनको देख सके। असग़र ने अपना पीछा छुड़ाने के लिए यह शर्त रखी कि अगर वो अपनी मौजूदा ज़िंदगी से पूरे ख़ानदान के साथ तौबा करले तो वो उस से शादी कर सकते हैं। वो इस पर भी राज़ी हो गई। उस नेक औरत ने ज़िंदगीभर असग़र की ख़िदमत की। इससे पहले असग़र की शादी गोंडा के ही क़ाज़ी साहिबान के ख़ानदान में हो चुकी थी, उससे उनकी दो लड़कियां भी थीं लेकिन असग़र की अपनी पहली बीवी से नहीं बनती थी और वो असग़र के वालिद के साथ रहती थी। जवानी की बेढंगेपन के बाद असग़र ने महसूस किया कि जिस्म की संतुष्टि रूह की असंतुष्टि को नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त हद तक बढ़ा रही है तो वो सब कुछ छोड़ छाड़ कर मुर्शिद की तलाश में निकल खड़े हुए। जा तो रहे थे शेख़ मुहम्मद उमर से मिलने लेकिन रास्ते में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि क़ाज़ी अब्दुलग़नी मंगलौरी के मुरीद हो गए जिसके बाद उनकी ज़िंदगी ही बदल गई, “अब न ज़माँ न वो मकाँ, अब वो ज़मीं न आसमां * तुमने जहां बदल दिया आ के मेरी निगाह में।” अब उनकी शख़्सियत ने नया जामा पहना और आख़िरी उम्र तक वो हर हैसियत से और हर मुआमले में साहिब-ए-ज़ौक़ और साहिब-ए-हाल रहे। वो बहरहाल रिवायती सूफ़ी या ख़ुश्क परहेज़गार नहीं बल्कि हँसमुख और विनोद प्रिय थे।
असग़र के ज़िंदगी के हालात जिगर मुरादाबादी के चर्चा के बिना अधूरे रहेंगे। जिगर से असग़र की मुलाक़ात गोंडा के मुशायरों में हुई और रफ़्ता-रफ़्ता सम्बंध इतने बढ़े कि जिगर उनके घर के एक फ़र्द बन गए। जिन दिनों जिगर अत्यधिक मानसिक और भावनात्मक परेशानियों से ग्रस्त थे, असग़र ने उनकी शादी अपनी साली (छुट्टन की छोटी बहन) से करा दी। वो जिगर की शराबनोशी और सरमस्ती के बावजूद जिगर की क़दर करती थी। जिगर उन दिनों एक चश्मा बनाने वाली कंपनी के विक्रय प्रतिनिधि थे। उन्होंने असग़र के साथ मिलकर गोंडा में चश्मों का अपना कारोबार शुरू किया, लेकिन जिगर बेपरवाह आदमी थे। बीवी को छोड़कर महीनों के लिए ग़ायब हो जाते थे। छुट्टन की ज़िद थी कि असग़र नसीम से शादी कर लें। इसके लिए ज़रूरी था कि जिगर नसीम को और असग़र छुट्टन को तलाक़ दें, चुनांचे ऐसा ही हुआ और असग़र ने नसीम से शादी कर ली। छुट्टन नियमित रूप से उनके घर में रहीं और उनकी ख़िदमत करती रहीं। वो असग़र से उम्र में बड़ी भी थीं। (असग़र की मौत के बाद जिगर ने दुबारा नसीम से शादी की)। असग़र के मिज़ाज में नफ़ासत बहुत थी, वो उम्दा चीज़ों के शौक़ीन थे, नाज़ुक-मिज़ाजी या तकब्बुर उनको छू भी नहीं गए थे। हर शख़्स के साथ झुक कर मिलते थे। मज़हबी होने के बावजूद कट्टरपन बिल्कुल नहीं था, उनके मिलने वालों में शिक्षित, ओबाश, क़लंदर, विद्यार्थी, कारोबारी, सम्भ्रांत और असभ्य, शराबी, ग़रज़ हर क़िस्म के लोग शामिल थे लेकिन सभी उनकी महफ़िल में आकर सभ्य हो जाते थे। उनसे मिलने वाले उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बग़ैर नहीं रहते थे। स्वभाव में एक तरह का ठहराव था जो उनके कलाम में भी है।
असग़र की पत्रकारिता की ज़िंदगी 1912 में शुरू हुई जब उन्होंने फ़ैज़ाबाद से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक अख़बार “क़ैसर-ए-हिंद” में काम करना शुरू किया, बाद में यह अख़बार “पयाम-ए-हिंद के नाम से प्रकाशित होने लगा। असग़र का आरम्भिक कलाम इन ही अख़बारात में प्रकाशित हुआ। 1926 में लाहौर में “उर्दू मर्कज़” क़ायम हुआ जिसके लिए असग़र को अल्लामा ताजवर के कहने पर गोंडा से बुलाया गया। असग़र ने डेढ़ दो साल वहां काम किया फिर संस्था का भविष्य अंधकारमय देखकर गोंडा वापस आ गए। हिन्दुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद से असग़र का सम्बंध सर तेज बहादुर सप्रू के माध्यम से हुआ जो असग़र के प्रशंसक थे। असग़र 1930 से 1936 अर्थात अपनी मौत तक एकेडमी से सम्बद्ध रहे। असग़र ने शायरी को कभी पेशा नहीं बनाया बल्कि वो दूसरों को शायरी से तरह तरह से रोकते थे। उनका ख़्याल था मुशायरों में वही शे’र उठता है जो सबकी समझ में आ जाये और ऐसा शे’र आमतौर पर सतही होता है। वो अपनी ग़ज़लें भी ख़ुद पढ़ने के बजाय दूसरों से पढ़वाते थे। असग़र ब्लड प्रेशर के मरीज़ थे, उन पर 1934 में फ़ालिज का हमला हुआ जिससे वो जल्द स्वस्थ हो गए लेकिन 1936 में इसी मर्ज़ का दोबारा हमला जानलेवा साबित हुआ।
असग़र की ग़ज़ल में हसरत की सादगी पसंदी, शीरीनी, फ़ानी की परिपक्वता, कोमलता, और मूसीक़ीयत और तसव्वुफ़ की चाश्नी घुली मिली नज़र आती है। उनका कलाम पढ़ने वाला फ़ैसला नहीं कर पाता कि इसमें ख़्याल या मज़मून की ख़ूबी ज़्यादा है या लताफ़त और हुस्न-ए-बयान की। उनके यहां शायरी का हासिल यही है कि पढ़ने वालों के दिल-ओ-दिमाग़ को नग़मों के ज्ञान से भर दिया जाये और उसकी रूह को लबरेज़ किया जाये। उनकी शायरी में हवस की कोई मिलावट नहीं, हर जगह काल्पनिक हुस्न, हुस्न-ए-नज़र और हुस्न-ए-अदा की जल्वा-नुमाई है। जोश और सरमस्ती असग़र के ग़ज़लों की जान है। इश्क़िया अशआर में वो तहज़ीब का दामन नहीं छोड़ते और मामूली ख़्याल को भी दिलकश बनाने का हुनर जानते हैं। उनकी शायरी का लब-ओ-लहजा हर्षोल्लास और मायनी के रक़्स की जीती-जागती तस्वीर है। उनके कलाम में भावनाओं की शिद्दत के बावजूद एक तरह का ठहराव और ज़ब्त है। उनका तसव्वुफ़ मौलवियत की बे-रूह फ़िक़ा परस्ती के ख़िलाफ़ एक तीव्र प्रतिक्रिया है। उनकी निगाह में क़ुवत, ज़ब्त का नाम है, न कि बिखराव का। उर्दू ग़ज़ल में असग़र हर्ष की शायरी की बेहतरीन मिसाल हैं।