अशहद बिलाल इब्न-ए-चमन
ग़ज़ल 9
अशआर 9
इक लफ़्ज़ याद था मुझे तर्क-ए-वफ़ा मगर
भूला हुआ हूँ ठोकरें खाने के बअ'द भी
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ज़िंदगी की हक़ीक़त अजब हो गई
आज कल हो रही है बसर ख़्वाब में
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याद रखना भी इक इबादत है
क्यूँ न हम उन का हाफ़िज़ा हो जाएँ
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सवेरा ले के आता है मिरे ख़्वाबों की ताबीरें
मगर जब शाम होती है तो उन की याद आती है
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होश-ओ-हवास खोने लगा हूँ फ़िराक़ में
तन्हाइयों ने ऐसा मुक़फ़्फ़ल किया मुझे
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