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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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अशहर हाशमी

ग़ज़ल 7

अशआर 7

उस से मिलने की तलब में जी लिए कुछ और दिन

वो भी ख़ुद बीते दिनों से बर-सर-ए-पैकार थी

मेरी दुनिया में समुंदर का कहीं नाम नहीं

फिर घटा फेंकती है मुझ पे ये पत्थर कैसे

तिरा ग़ुरूर झुक के जब मिला मिरे वजूद से

जाने मेरी कमतरी का चेहरा क्यूँ उतर गया

वहीं के पत्थरों से पूछ मेरा हाल-ए-ज़िंदगी

मैं रेज़ा रेज़ा हो के जिस दयार में बिखर गया

रहगुज़र भी तिरी पहले थी अजनबी

हर गली अब तिरी रहगुज़र हो गई

पुस्तकें 3

 

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