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आशिक़ अकबराबादी

1848 - 1918

आशिक़ अकबराबादी

ग़ज़ल 18

अशआर 20

ज़िक्र करता है इस तरह मेरा

मुझ को गोया मिटाए जाता है

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एक रुत्बा है तिरे दर पे गदा-ओ-शह का

आसमाँ कासे लिए फिरता है मेहर-ओ-मह का

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मुझे तुम देख कर समझो कि चाहत ऐसी होती है

मोहब्बत वो बुरी शय है कि हालत ऐसी होती है

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तिरे कूचे में कोई हूर जाती तो मैं कहता

कि वो जन्नत तो क्या जन्नत है जन्नत ऐसी होती है

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अपना सानी वो आप ही निकले

आइना भी दिखा के देख लिया

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