आसिम वास्ती
ग़ज़ल 32
नज़्म 7
अशआर 27
ख़ुश्क रुत में इस जगह हम ने बनाया था मकान
ये नहीं मालूम था ये रास्ता पानी का है
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तिरी ज़मीन पे करता रहा हूँ मज़दूरी
है सूखने को पसीना मुआवज़ा है कहाँ
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बदल गया है ज़माना बदल गई दुनिया
न अब वो मैं हूँ मिरी जाँ न अब वो तू तू है
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लोग कहते हैं कि वो शख़्स है ख़ुशबू जैसा
साथ शायद उसे ले आए हवा देखते हैं
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सीखा न दुआओं में क़नाअत का सलीक़ा
वो माँग रहा हूँ जो मुक़द्दर में नहीं है
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