असलम आज़ाद के शेर
रास्ता सुनसान था तो मुड़ के देखा क्यूँ नहीं
मुझ को तन्हा देख कर उस ने पुकारा क्यूँ नहीं
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हज़ार बार निगाहों से चूम कर देखा
लबों पे उस के वो पहली सी अब मिठास नहीं
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दोस्तों के साथ दिन में बैठ कर हँसता रहा
अपने कमरे में वो जा कर ख़ूब रोया रात भर
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धूप के बादल बरस कर जा चुके थे और मैं
ओढ़ कर शबनम की चादर छत पे सोया रात भर
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अपना मकान भी था उसी मोड़ पर मगर
जाने मैं किस ख़याल में औरों के घर गया
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सिलसिला रोने का सदियों से चला आता है
कोई आँसू मिरी पलकों पे ठहरता ही नहीं
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मैं ने अपनी ख़्वाहिशों का क़त्ल ख़ुद ही कर दिया
हाथ ख़ून-आलूद हैं इन को अभी धोया नहीं
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हमारे बीच वो चुप-चाप बैठा रहता है
मैं सोचता हूँ मगर कुछ मुझे पता न लगे
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किसी तरह न तिलिस्म-ए-सुकूत टूट सका
वो दे रहा था बहुत दूर से सदा मुझ को
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न दश्त ओ दर से अलग था न जंगलों से जुदा
वो अपने शहर में रहता था फिर भी तन्हा था
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फेंका था किस ने संग-ए-हवस रात ख़्वाब में
फिर ढूँढती है नींद उसी पिछले पहर को
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कोई दीवार सलामत है न अब छत मेरी
ख़ाना-ए-ख़स्ता की सूरत हुई हालत मेरी
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