असलम फ़र्रुख़ी के शेर
कोई मंज़िल नहीं बाक़ी है मुसाफ़िर के लिए
अब कहीं और नहीं जाएगा घर जाएगा
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आग सी लग रही है सीने में
अब मज़ा कुछ नहीं है जीने में
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सारे दिल एक से नहीं होते
फ़र्क़ है कंकर और नगीने में
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न देख मुझ को मोहब्बत की आँख से ऐ दोस्त
मिरा वजूद मिरा मुद्दआ न हो जाए
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रौशनी हो रही है कुछ महसूस
क्या शब आख़िर तमाम को पहुँची
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हंगामा-ए-हस्ती से गुज़र क्यूँ नहीं जाते
रस्ते में खड़े हो गए घर क्यूँ नहीं जाते
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