असलम हनीफ़
ग़ज़ल 10
नज़्म 2
दोहा 8
फैला हुआ है हर-तरफ़ एक अजब हैजान
शहर में आ कर मिट गई मेरी भी पहचान
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तू मेरे एहसास का जब भी बना आधार
सूरज मेरी ओट से निकला सौ सौ बार
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जब भी आऊँ चोरी-छुपे उस के घर की ओर
दुनिया देखे बाग सी मन में नाचे मोर
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बुरे जो तेरे दोस्त हैं बुरा न उन को जान
होती नहीं बदबू बिना ख़ुश्बू की पहचान
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हर-पल इक आज़ार है हर-पग इक आज़ार
सच्चाई की राह पर चलना है दुश्वार
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