असरार ज़ैदी
ग़ज़ल 29
अशआर 4
मसरूफ़ हम भी अंजुमन-आराइयों में थे
घर जल रहा था लोग तमाशाइयों में थे
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ये साल तूल-ए-मसाफ़त से चूर चूर गया
ये एक साल तो गुज़रा है इक सदी की तरह
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सुलग रहा हूँ ख़ुद अपनी ही आग में कब से
ये मश्ग़ला तो मिरे दर्द की असास न था
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अनजाने लोगों को हर सू चलता फिरता देख रहा हूँ
कैसी भीड़ है फिर भी ख़ुद को तन्हा तन्हा देख रहा हूँ
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