अताउल हक़ क़ासमी
तंज़-ओ-मज़ाह 1
अशआर 8
जिस की ख़ातिर मैं भुला बैठा था अपने आप को
अब उसी के भूल जाने का हुनर भी देखना
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वो एक शख़्स कि मंज़िल भी रास्ता भी है
वही दुआ भी वही हासिल-ए-दुआ भी है
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लगता नहीं कि उस से मरासिम बहाल हों
मैं क्या करूँ कि थोड़ा सा पागल तो मैं भी हूँ
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ये किस अज़ाब में उस ने फँसा दिया मुझ को
कि उस का ध्यान कोई काम करने देता नहीं
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