अतहर नासिक
ग़ज़ल 14
अशआर 8
कितने मअनी रखता है ज़रा ग़ौर तो कर
कूज़ा-गर के हाथ में होना मिट्टी का
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मैं उसे सुब्ह न जानूँ जो तिरे संग नहीं
मैं उसे शाम न मानूँ कि जो तेरे बिन है
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यक़ीन बरसों का इम्कान कुछ दिनों का हूँ
मैं तेरे शहर में मेहमान कुछ दिनों का हूँ
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सूरज लिहाफ़ ओढ़ के सोया तमाम रात
सर्दी से इक परिंदा दरीचे में मर गया
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