अता शाद
ग़ज़ल 9
अशआर 4
दर्द की धूप में सहरा की तरह साथ रहे
शाम आई तो लिपट कर हमें दीवार किया
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दिल वो सहरा है जहाँ हसरत-ए-साया भी नहीं
दिल वो दुनिया है जहाँ रंग है रानाई है
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वो क्या तलब थी तिरे जिस्म के उजाले की
मैं बुझ गया तो मिरा ख़ाना-ए-ख़राब सजा
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दिलों के दर्द जगा ख़्वाहिशों के ख़्वाब सजा
बला-कशान-ए-नज़र के लिए सराब सजा
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