अज़ीम हैदर सय्यद
ग़ज़ल 14
अशआर 16
आहन ओ संग को ज़हराब-ए-फ़ना चाट गया
पहले दीवार शिकस्ता हुई फिर बाब गिरा
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ऐ शाम-ए-हिज्र-ए-यार मिरी तू गवाही दे
मैं तेरे साथ साथ रहा घर नहीं गया
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बाज़ार-ए-आरज़ू में कटी जा रही है उम्र
हम को ख़रीद ले वो ख़रीदार चाहिए
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लिबास देख के इतना हमें ग़रीब न जान
हमारा ग़म तिरी इम्लाक से ज़ियादा है
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सर पे सूरज है तो फिर छाँव से महज़ूज़ न हो
धूप का रंग भी दीवार में आ सकता है
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