अज़ीम क़ुरैशी
ग़ज़ल 9
नज़्म 3
अशआर 8
तिरे विसाल की कब आरज़ू रही दिल को
कि हम ने चाहा तुझे शौक़-ए-बे-सबब के लिए
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हुस्न और इश्क़ हैं दोनों काफ़िर
दोनों में इक झगड़ा सा है
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चाँद को तुम आवाज़ तो दे लो
एक मुसाफ़िर तन्हा तो है
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हिज्र में उस निगार-ए-ताबाँ के
लम्हा लम्हा बरस है क्या कीजे
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हम भी किसी शीरीं के लिए ख़ाना-बदर थे
फ़रहाद रह-ए-इश्क़ में तन्हा तो न निकला
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