अज़मत अब्दुल क़य्यूम ख़ाँ
अशआर 17
मंज़िल पे नज़र आई बहुत दूरी-ए-मंज़िल
बे-साख़्ता आने लगे सब राह-नुमा याद
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ज़िंदगानी का लुत्फ़ तो 'अज़्मत'
सिर्फ़ तूफ़ान की पनाह में है
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ये बात भी है कि तू भी नहीं है अब मेरा
ये बात भी है कि तेरे सिवा नहीं कोई
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रौशनियों के शहर में रह कर
हम अँधेरों से रू-शनास रहे
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मौत पहरों उदास रहती है
हम अगर ज़िंदगी से मिलते हैं
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