बकुल देव
ग़ज़ल 21
अशआर 20
हवस शामिल है थोड़ी सी दुआ में
अभी इस लौ में हल्का सा धुआँ है
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शाम उतरी है फिर अहाते में
जिस्म पर रौशनी के घाव लिए
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वही आँसू वही माज़ी के क़िस्से
जिसे देखो कटे को काटता है
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मुस्कुराने का फ़न तो बअ'द का है
पहले साअ'त का इंतिख़ाब करो
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तअ'ल्लुक़ तर्क तो कर लें सभी से
भले लगते हैं कुछ नुक़सान लेकिन
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