बाक़र आगाह वेलोरी
ग़ज़ल 11
अशआर 5
क्या ख़ूब मेरे बख़्त की मंडवे चढ़ी है बेल
ना बाग़ न बहार न काँटा ना फूल हूँ
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देखते देखते सितम तेरा
सख़्त नाशाद हो गया है दिल
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क्या फ़ाएदा है क़िस्सा-ए-रिज़वान से तुझे
कोई शम्अ-रू परी सते तू भी लगन लगा
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मैं तेरे हिज्र में जीने से हो गया था उदास
पे गर्म-जोशी से क्या क्या मनाया अश्क मिरा
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सर-ए-सौदा पे तिरे शेर-ए-रसा से 'आगाह'
सिलसिला हश्र का बरपा न हुआ था सो हुआ
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