बर्क़ी आज़मी
ग़ज़ल 43
नज़्म 1
अशआर 9
हुआ कर्बला में जो क़ुर्बान 'बर्क़ी'
हुसैन इब्न-ए-हैदर का वो ख़ानदाँ था
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रूठने और मनाने के एहसास में है इक कैफ़-ओ-सुरूर
मैं ने हमेशा उसे मनाया वो भी मुझे मनाए तो
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इस हाल में कब तक यूँही घुट घुट के जियूँगा
रूठा है वो ऐसे कि मना भी नहीं सकता
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अजब ख़ूँ-चकाँ कर्बला का समाँ था
थे सब तिश्ना-लब और दरिया रवाँ था
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ज़िंदगी उस ने बदल कर मिरी रख दी ऐसी
न मुझे चैन न आराम है क्या अर्ज़ करूँ
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