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Bhartendu Harishchandra's Photo'

भारतेंदु हरिश्चंद्र

1850 - 1885 | बनारस, भारत

हिंदी के नवीकरण के प्रचारक, क्लासिकी शैली में अपनी उर्दू ग़ज़ल के लिए प्रसिद्ध

हिंदी के नवीकरण के प्रचारक, क्लासिकी शैली में अपनी उर्दू ग़ज़ल के लिए प्रसिद्ध

भारतेंदु हरिश्चंद्र का परिचय

उपनाम : 'रसा'

मूल नाम : भारतेंदु हरिश्चंद्र

जन्म : 09 Sep 1850 | बनारस, उत्तर प्रदेश

निधन : 06 Jan 1885 | बनारस, उत्तर प्रदेश

छानी कहाँ ख़ाक पाया कहीं तुम्हें

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आधुनिक  हिंदी साहित्य  का  निर्माता  उर्दू  का  ही  एक  शायर था। उसी ने आधुनिक गद्द्य  को नया  रंग-व-आहंग और नयी  शैली  प्रदान की थी। उसके नाम से हिन्दी  साहित्य  का  एक  युग भी जुड़ा  हुआ है। उस व्यक्तित्व का नाम भारतेंदु हरीश्चंद्र है और तख़ल्लुस रसा। कहा जाता है कि भरतेंदु ने सर सैयद अहमद ख़ान की उर्दू नस्र की सादगी और बयान की  सफ़ाई से प्रभावित हो कर यह ढंग अपनाया था। ये इंस्टिट्यूट गज़ट अलीगढ़ के अहम्  क़लमकारों में से थे। जिनका उर्दू  में एक मज़्मून “हिंदुओं का क़ानून-ए-विरसात” के उन्वान  से  प्रकाशित हुआ था। मगर बाद में उर्दू का यही शायर हिन्दी-उर्दू विवाद में हिन्दी का कटटर  हिमायती और वकील बन गया। 

भारतेंदु हरीशचंद्र 9 सितम्बर 1850 को बनारस में पैदा हुए। उनके पिता का नाम गोपाल चन्द्र गुरु हरदास क़लमी नाम से शायरी करते थे। बचपन ही में माता-पिता का साया सर  से  उठ गया था। उन्होंने 15  साल  की  उम्र  में अपने माता-पिता के साथ पुरी के  जगन्नाथ  मंदिर  की  यात्रा  की थी और  वह बँगाल  की  संस्कृति से  बहुत  प्रभावित  थे। यहीं  से  उन्हें ड्रामे और  नॉवेल  लिखने की प्रेरणा मिली। 

भारतेंदु हरीशचंद्र ने विभिन्न गद्द्य विधाओं में अहम् कारनामे अंजाम दिये हैं। पत्रकार की  हैसियत से भी उनका नाम बहुत अहम् है। उन्होंने कवि वाचन सुधा ,हरीशचंद्र मैगज़ीन ,हरीशचंद्र पत्रिका, और बाल बोधिनी जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया। 

नाटककार के रूप में उनकी पहचान  स्थायी है। उनके प्रसिद्ध  ड्रामों  में भारत दुर्दशा, सत्य हरीश ,नील देवी  और  अंधेर  नगरी  उल्लेखनीय हैं। भारतेंदु एक उम्दा शायर भी थे। उन्होंने ज़ेह्न रसा पाया था। इसलिए अपने अनुभवों को शे'री पैकर में ढालते रहते थे। उनकी प्रेम सीरीज़ की कविताएं बहुत मशहूर हैं। भारतेंदु ने बहुत सी उत्कृष्ट रचनाओं के अनुवाद भी किये  हैं। 
भारतेंदु हरीशचंद्र सुधार आंदोलन से भी जुड़े हुए थे। औरतों शिक्षा के प्रति जागरूकता के लिए "बाल बोधिनी "नामक एक पत्रिका भी प्रकाशित करते थे। औरतों की शिक्षा से सम्बंधित उनकी  कई किताबें हैं। "नील देवी "ड्रामा का विषय भी नारी शिक्षा ही है। आधुनिक शिक्षा और  तकनीक वह प्रशंसक थे, इसीलिए मलका विक्टोरिया और प्रिंस ऑफ वेल्स को बहुत सम्मान की  दृष्टि से देखते थे।

भारतेंदु हरीशचंद्र साइंटिफ़िक सोसायटी अलीगढ़ के सदस्य भी थे और सर सैयद अहमद ख़ान  के क़रीबी दोस्तोँ में थे। सर सैयद चाहते थे कि भारतेंदु अलीगढ़ कॉलेज में हिन्दी और संस्कृत  के अध्यापन की सेवाएँ दें मगर भारतेंदु ने किसी वजह से सर सैयद के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। मगर वह इंस्टिट्यूट गज़ट के प्रशंसकों में से थे। सर सैयद के नाम एक उर्दू ख़त में  इसे लिखा भी है। सर सैयद अकादमी अलीगढ़ में यह ख़त महफ़ूज़ है। सर सैयद अहमद ख़ान जब बनारस कोर्ट जज थे तो भारतेंदु के ख़िलाफ़ एक सैलानी ने रिट दायर की थी। केस  सर  सैयद की अदालत में था। सर सैयद ने हल्का सा जुर्माना लगाकर उन्हें बरी कर दिया। 

सर सैयद अहमद ख़ान से गहरे सम्बंध होने के बावजूद भारतेंदु उनके सिद्धांत के विरोधी भी   थे। वह उस पुनर्रुद्धार आंदोलन के आविष्कारक थे जिसने अदालतों में उर्दू की जगह हिन्दी की  पुरज़ोर वकालत की थी और जिसका गऊ हत्या पर पूरा ज़ोर था। 

भारतेंदु हरीशचंद्र का बनारस में 6  जनवरी 1885  को देहांत हुआ। उस वक़्त उनकी उम्र ३४ साल थी।

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