बिलाल अहमद
ग़ज़ल 6
नज़्म 8
अशआर 9
अजीब ढंग से तक़सीम-ए-कार की उस ने
सो जिस को दिल न दिया उस को दिलरुबाई दी
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उलझ रहा था अभी ख़्वाब की फ़सील से मैं
कि ना-रसाई ने इक शब मुझे रसाई दी
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एक काँटे की खटक से दिल मिरा आबाद था
वो गया तो दिल से मेरे दर्द की राहत गई
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सुना है मैं ने अज़िय्यत मज़ा भी देती है
सुना है दिल की ख़लिश में सकूँ भी होता है
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हमारी ख़ाक तबर्रुक समझ के ले जाओ
हमारी जान मोहब्बत की लौ में जलती थी
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