द्वारका दास शोला
चित्र शायरी 1
अपनों के सितम याद न ग़ैरों की जफ़ा याद वो हँस के ज़रा बोले तो कुछ भी न रहा याद क्या लुत्फ़ उठाएगा जहान-ए-गुज़राँ का वो शख़्स कि जिस शख़्स को रहती हो क़ज़ा याद हम काग उड़ा देते हैं बोतल का उसी वक़्त गर्मी में भी आ जाती है जब काली घटा याद महशर में भी हम तेरी शिकायत न करेंगे आ जाएगी उस दिन भी हमें शर्त-ए-वफ़ा याद पी ली तो ख़ुदा एक तमाशा नज़र आया आया भी तो आया हमें किस वक़्त ख़ुदा याद अल्लाह तिरा शुक्र कि उम्मीद-ए-करम है अल्लाह तिरा शुक्र कि उस ने भी किया याद कल तक तिरे बाइ'स मैं उसे भूला हुआ था क्यूँ आने लगा फिर से मुझे आज ख़ुदा याद