aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
1954 | जयपुर, भारत
अच्छा हुआ ज़बान-ए-ख़मोशी न तुम पढ़े
शिकवे मिरे वगर्ना रुलाते तुम्हें बहुत
कि है मुख़्तसर दास्ताँ इश्क़ की
गले मिल के कोई गले पड़ गया
वतन-परस्ती हमारा मज़हब हैं जिस्म-ओ-जाँ मुल्क की अमानत
करेंगे बरपा क़हर अदू पर रहेगा दाइम वतन सलामत
ये कैसी बद-दुआ' दी है किसी ने
समुंदर हूँ मगर खारा हुआ हूँ
था कभी उन की निगाहों में बुलंद अपना मक़ाम
इतनी ऊँचाई से गिर कर भी कोई बचता है
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