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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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यासीनआतिर

ग़ज़ल 35

अशआर 28

तुम्हें हमेशा ज़रूरत पकड़ के लाती है

कभी तो आओ मिरे घर मिरे हवाले से

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रेत बन कर मिरी मुट्ठी से फिसल जाती है

अब मोहब्बत भी सँभाली नहीं जाती मुझ से

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ज़िंदगी तू मिरे हौसले की दाद तो दे

मैं उठ के रोज़ नया दिन गले लगाता हूँ

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मैं ख़ुद को भी नहीं इतना मयस्सर

वो सौ फ़ीसद तवज्जोह चाहता है

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जाने कौन सी ग़ुर्बत है मेरी आँखों में

कि उस बदन में ख़ज़ाने तलाश करता हूँ

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क़ितआ 11

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