एजाज़ उबैद के शेर
सहर होते ही कोई हो गया रुख़्सत गले मिल कर
फ़साने रात के कहती रही टूटी हुई चूड़ी
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हथेलियों में लकीरों का जाल था कितना
मिरे नसीब में मेरा ज़वाल था कितना
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मुक़य्यद हो न जाना ज़ात के गुम्बद में यारो
किसी रौज़न किसी दरवाज़ा को वा छोड़ देना
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