फ़ाएज़ देहलवी
ग़ज़ल 30
अशआर 21
मुझ को औरों से कुछ नहीं है काम
तुझ से हर दम उमीद-वारी है
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रात दिन तू रहे रक़ीबाँ-संग
देखना तेरा मुझ मुहाल हुआ
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वो तमाशा ओ खेल होली का
सब के तन रख़्त-ए-केसरी है याद
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गुड़ सीं मीठा है बोसा तुझ लब का
इस जलेबी में क़ंद ओ शक्कर है
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हुस्न बे-साख़्ता भाता है मुझे
सुर्मा अँखियाँ में लगाया न करो
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