फ़राग़ रोहवी
ग़ज़ल 18
नज़्म 34
अशआर 18
उसी तरफ़ है ज़माना भी आज महव-ए-सफ़र
'फ़राग़' मैं ने जिधर से गुज़रना चाहा था
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खुली न मुझ पे भी दीवानगी मिरी बरसों
मिरे जुनून की शोहरत तिरे बयाँ से हुई
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न चाँद ने किया रौशन मुझे न सूरज ने
तो मैं जहाँ में मुनव्वर हुआ तो कैसे हुआ
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न जाने कैसा समुंदर है इश्क़ का जिस में
किसी को देखा नहीं डूब के उभरते हुए
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मिरी मैली हथेली पर तो बचपन से
ग़रीबी का खरा सोना चमकता है
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दोहा 3
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