फ़रहान हनीफ़ वारसी के शेर
जिस की ख़ातिर सभी रिश्तों से हुआ था मुंकिर
अब सुना है कि वही शख़्स ख़फ़ा है मुझ से
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वो एक मोड़ जहाँ वो कभी मिला था मुझे
उस एक मोड़ पर उस को जुदा भी होना था
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अभी मुझ में बहुत हिम्मत है लेकिन
किसी हारे हुए लश्कर में हूँ मैं
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मुझ से बिछड़ा है मगर ये भी न सोचा तू ने
इस क़दर टूट के फिर कौन तुझे चाहेगा
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और क्या देंगे हम तुझे जानाँ
ज़िंदगी तेरे नाम करते हैं
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तुम्ही ने राह में इक घर बसा लिया वर्ना
मोहब्बतों का सफ़र तो तवील था जानाँ
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सब्त है मेरे लबों पर आज भी तेरा वो लम्स
आज भी है तेरे ख़्वाबों का बसेरा आँख में
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परिंदे सो गए जा के घरों में
शजर जंगल में फिर क्यूँ जागता है
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रोज़ मुझ को वो याद आता है
रोज़ मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ
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ये रस्ता तो सीधा उस के घर तक जा कर रुकता है
ऐ मेरे आवारा क़दमो किस रुख़ पर ले आए तुम
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उस से मिलने का बहाना चाहे
दिल वही दर्द पुराना चाहे
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वरक़ वरक़ हैं यहाँ हादसात-ए-रोज़-ओ-शब
किताब-ए-ज़ीस्त मैं मंसूब अब करूँ किस से
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वो मेरे नाम करे अपनी ख़ुशबुएँ इर्साल
मैं उस के नाम करूँ अपनी शाइ'री सोचूँ
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ये और बात कि भूलेगा ख़द्द-ओ-ख़ाल मगर
वो मुझ को याद रखेगा किसी कथा की तरह
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मुतमइन है ये मेरी क़ौम बहुत
तू भी कुछ ख़ुश-गुमानियाँ दे जा
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अव्वल अव्वल तो इस को सब दिलचस्पी से पढ़ते हैं
जैसे मेरा चेहरा भी अख़बार का कोई कॉलम हो
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मैं भी सपने दर आने के सब रस्ते मसदूद करूँ
तुम भी आँखें बंद न करना वस्ल का मौसम आने तक
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उस का अंदाज़ रूठ जाने का
है बहाना क़रीब आने का
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दिलों के मेल से आगे लबों के सिलसिले सारे
जो लब ख़ामोश होते हैं तो आँखें बात करती हैं
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हर सोचता दिमाग़ हर इक देखती नज़र
लम्हों की भाग-दौड़ में शामिल है इन दिनों
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हमारी चाहतें सच हैं मगर हालात का दरिया
मुझे इस पार रखता है तुझे उस पार रखता है
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वो आँखों से उतर आया है दिल में
इसी मंज़र के पस-मंज़र में हूँ मैं
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रात भर कोई सूरज दहकता लगे
मेरी आँखों के ये नूर आँसू अजब
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