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फ़ारूक़ बाँसपारी

1907 - 1968 | बलिया, भारत

फ़ारूक़ बाँसपारी

ग़ज़ल 7

अशआर 8

मिरे नाख़ुदा घबरा ये नज़र है अपनी अपनी

तिरे सामने है तूफ़ाँ मिरे सामने किनारा

यक़ीं मुझे भी है वो आएँगे ज़रूर मगर

वफ़ा करेगी कहाँ तक कि ज़िंदगी ही तो है

ग़म-ए-इश्क़ ही ने काटी ग़म-ए-इश्क़ की मुसीबत

इसी मौज ने डुबोया इसी मौज ने उभारा

मिरी ज़िंदगी का महवर यही सोज़-ओ-साज़-ए-हस्ती

कभी जज़्ब-ए-वालहाना कभी ज़ब्त-ए-आरिफ़ाना

सितारों से शब-ए-ग़म का तो दामन जगमगा उठ्ठा

मगर आँसू बहा कर हिज्र के मारों ने क्या पाया

पुस्तकें 3

 

ऑडियो 7

कभी बे-नियाज़-ए-मख़्ज़न कभी दुश्मन-ए-किनारा

कोहसार का ख़ूगर है न पाबंद-ए-गुलिस्ताँ

ख़ुशी से फूलें न अहल-ए-सहरा अभी कहाँ से बहार आई

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