फ़ारूक़ शमीम
ग़ज़ल 6
अशआर 7
हैं राख राख मगर आज तक नहीं बिखरे
कहो हवा से हमारी मिसाल ले आए
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वक़्त इक मौज है आता है गुज़र जाता है
डूब जाते हैं जो लम्हात उभरते कब हैं
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झूट सच में कोई पहचान करे भी कैसे
जो हक़ीक़त का ही मेयार फ़साना ठहरा
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अपने ही फ़न की आग में जलते रहे 'शमीम'
होंटों पे सब के हौसला-अफ़ज़ाई रह गई
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धूप छूती है बदन को जब 'शमीम'
बर्फ़ के सूरज पिघल जाते हैं क्यूँ
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चित्र शायरी 1
सिलसिले ख़्वाब के अश्कों से सँवरते कब हैं आज दरिया भी समुंदर में उतरते कब हैं वक़्त इक मौज है आता है गुज़र जाता है डूब जाते हैं जो लम्हात उभरते कब हैं यूँ भी लगता है तिरी याद बहुत है लेकिन ज़ख़्म ये दिल के तिरी याद से भरते कब हैं लहर के सामने साहिल की हक़ीक़त क्या है जिन को जीना है वो हालात से डरते कब हैं ये अलग बात है लहजे में उदासी है 'शमीम' वर्ना हम दर्द का इज़हार भी करते कब हैं