फ़र्रुख़ ज़ोहरा गिलानी
ग़ज़ल 11
नज़्म 7
अशआर 5
अभी तलक है सदा पानियों पे ठहरी हुई
अगरचे डूब चुका है पुकारने वाला
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मिरे जज़्बे मिरी शहादत हैं
बहते आँसू शहीद करती हूँ
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दयार-ए-फ़िक्र-ओ-हुनर को निखारने वाला
कहाँ गया मिरी दुनिया सँवारने वाला
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हर शख़्स को फ़रेब-ए-नज़र ने किया शिकार
हर शख़्स गुम है गुम्बद-ए-जाँ के हिसार में
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तुम तो ख़ुद सहरा की सूरत बिखरे बिखरे लगते हो
'फ़र्रुख़' से 'फ़र्रुख़' को सोचो कैसे तुम मिलवाओगे
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