फसीह रब्बाहनी के शेर
ऐसा लगता है कि बुझने की घड़ी आ पहुँची
लौ चराग़ों की बहुत तेज़ हुई जाती है
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बादबाँ फाड़ के ख़ुश हों न हवाएँ इतनी
हम तो हाथों को भी पतवार बना लेते हैं
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