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फ़ौज़िया रबाब

1988 | गोवा, भारत

फ़ौज़िया रबाब

ग़ज़ल 18

नज़्म 1

 

अशआर 17

तुम्हारी याद है मातम-कुनाँ अभी मुझ में

तुम्हारा दर्द अभी तक सियह लिबास में है

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हम ने ग़ज़लों में जो उतारा है

तिरी आँखों का इस्तिआ'रा है

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आज फिर तुम को हम ने देखा है

आज महशर बनी हैं ये आँखें

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कुछ इस लिए भी मुझे कामयाबी मिलती है

मैं अपने बाबा के नक़्श-ए-क़दम पे चलती हूँ

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मेरे ख़्वाबों में रोज़ आती हैं

अपनी आँखें सँभाल कर रखिए

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पुस्तकें 1

 

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शायर अपना कलाम पढ़ते हुए

फ़ौज़िया रबाब

फ़ौज़िया रबाब

फ़ौज़िया रबाब

फ़ौज़िया रबाब

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