फ़य्याज़ फ़ारुक़ी
ग़ज़ल 6
अशआर 8
ये सोचा है कि तुझ को सोचना अब छोड़ दूँगा मैं
ये लग़्ज़िश मुझ से लेकिन बे-इरादा हो ही जाती है
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राह में उस की चलें और इम्तिहाँ कोई न हो
कैसे मुमकिन है कि आतिश हो धुआँ कोई न हो
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कैसे मुमकिन है कि क़िस्से जिस से सब वाबस्ता हों
वो चले और साथ उस के दास्ताँ कोई न हो
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बढ़ाना हाथ पकड़ने को रंग मुट्ठी में
तो तितलियों के परों का दराज़ हो जाना
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